नेरटी का देहरा जहां अढ़ाई घड़ी तक खोपड़ी के बिना लड़ा राजा राजसिंह , शाहपुर के नेरटी गांव में चंबा के राजा राजसिंह का शहीदी स्थल, पूजनीय है ‘स्मृति शिला’

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धर्मशाला से रमेश चंद्र ‘मस्ताना’ की रिपोर्ट

पठानकोट-मंडी राष्ट्रीय उच्च मार्ग 154 पर रैत नामक कस्बे से एक संपर्क सड़क नीचे की ओर सरकती हुई सलोल- लंज-नगरोटा सूरियां और महाराणा प्रताप सागर पौंग जलाशय तक जाती है। इसी सड़क पर नेरटी नामक ऐतिहासिक गांव स्थित है, जो अपने में कई अद्भुत आश्चर्य एवं अतीत की विरासतों को संजोए हुए है। साहित्य एवं कला के साथ शैक्षणिक, सामाजिक और आध्यात्मिक  विशेषताओं को समेटे शाहपुर विधानसभा का यह क्षेत्र चंबा के राजा राजसिंह की ऐतिहासिक गाथा को भी अपने आंचल में समेटे हुए है।देहरा से चार किलोमीटर दूर पुरानी डाडासीबा रियासत के पास है चनौर मंदिर , यहां सत्य नारायण को चावलों का भोग, कश्मीरी पंडित करते पूजा,
राजसिंह का जन्म 1764 में चंबा से सोलह किलोमीटर दूर रावी नदी के किनारे पर बसे हुए ‘नड्ड’ नामक गांव में हुआ था। चंबा की रियायत से जुड़ा यह गांव चंबा के राज परिवारों एवं सेनाओं की स्थली भी रहा है। रेहलू के किले के साथ नेरटी में भी एक गढ़ और कोठियों के अलावा आध्यात्मिक दृष्टि से मशहूर एक शिव लाहड़ भी था, जिसमें राजाओं का निवास, शासन व राजकाज तथा धर्म-आस्था से संबंधित कार्य होते थे। कोठियों में माल गुजारी इकट्‌ठा की जाती थी और फिर वहां से उसे रेहलू के किले अथवा चंबा तक पहुंचाया जाता था। राजा राजसिंह का तलवार कौशल प्रसिद्ध था, वहां उनकी देवी माता ‘घोरका’ की प्रतिमा के प्रति अपार आस्था थी।जयंती विशेष : ‘उसने कहा था’ के कथाकार का हिमाचल के गुलेर से है संबंध, प्रथम विश्वयुद्ध की त्रासदी के बीच प्रेम की अनुभूति को जीवंत करती कथाकार चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी पर साठ के दशक में फिल्मकार  विमल राय ने बनाई थी फिल्म

यह माना जाता था कि जिसके पास माता घोरका की प्रतिमा होगी, उस राजा को कोई भी पराजित नहीं कर सकता था। कांगड़ा-नरेश  संसार चंद इसी देवी की प्रतिमा को और रेहलू तथा नेरटी के हार को अपने अधीन करने की मंशा रखने लगा था। सन 1786 में जैसे ही उसने  कांगड़ा के दुर्ग पर अधिकार कर लिया तो वह बहुत ही अधिक महत्वाकांक्षी हो गया और उसने साथ लगती ग्यारह पहाड़ी रियासतों पर अधिकार जमाने की मंशा प्रकट करनी शुरू कर दी। उसने राजा राजसिंह को भी रेहलू के इलाके को छोडऩे के लिए कहा, परन्तु राजा ने साफ मना कर दिया। राजा संसार चंद की इस मंशा से राजा राज सिंह को अंदेशा हो गया कि यह कभी भी आक्रमण कर सकता है, इसलिए उसने अन्दर ही अन्दर तैयारी शुरू कर दी और रेहलू के किले की मरम्मत करके सेना को इकट्‌ठा करना प्रारंभ कर दिया।पंजाब विश्वविद्यालय ते “मंडियाळी लोकगीत कनै लोकगाथां पर पीएचडी थे डॉ कांसी राम आत्रेय,  ग्रां- ग्रां च जाई करी मंडियाळी पर डुग्गा शोध करदे, स्कूलां- स्कूलां जाई करी बंडदे थे अपणियां क्ताबां

राजा संसार चन्द को जैसे ही इस बात का पता चला,  उसने अपनी सेना के माध्यम से गुप्त रूप में चंबा की सेना पर आक्रमण करवा दिया। उस समय राजा पूजा में बैठा हुआ था। राजा राजसिंह ने नूरपुर की सेना की मदद ली थी, परन्तु वह सेना भारी शत्रु सेना को देखकर भयभीत हो गई और हड़बड़ी की हालत में भाग खड़ी हुई। राजा राजसिंह को भी उन्होंने भाग जाने की सलाह दी, परन्तु राजा ने शौर्य के साथ लडऩा उचित समझा और अपनी नाममात्र की सेना के साथ शत्रु सेना से भिड़ गया। यद्यपि राजा संसारचन्द की ओर से राजा राजसिंह को  केवल बंदी बनाने का ही हुक्म था, परन्तु सैनिकों ने गढ़ के भीतर पूजा में बैठे हुए राजा राजसिंह पर धोखे से वार किया। आषाढ़ प्रविष्टे सात सन 1794 तद्नुसार  विक्रमी संवत1850 में हुए इस छद्म युद्ध में राजा राजसिंह पर शत्रु सेना के सैनिक जीत सिंह पूर्विया, जिसका नाम अमर सिंह हजूरी भी मिलता है, ने पीठ पीछे से तलवार का वार किया परन्तु राजा के एकदम सचेत होने व माता का आशीर्वाद होने से केवल खोपड़ी का ऊपरी हिस्सा ही उड़ गया और नाममात्र की सेना के शहीद  होने पर भी अकेले ही शत्रु सेना पर टूट पड़े।देहरा से चार किलोमीटर दूर पुरानी डाडासीबा रियासत के पास है चनौर मंदिर , यहां सत्य नारायण को चावलों का भोग, कश्मीरी पंडित करते पूजा,

खोपड़ी का ऊपरी हिस्सा भले ही उड़ गया पर फिर भी वह अढाई घड़ी अर्थात एक घंटे तक तक शरीर के अठारह घावों के बावजूद दुश्मन सैनिकों के से मुकाबला करते हुए राजा इसी देहरा नामक स्थान तक पहुंच गए थे। वहां पर किसी के द्वारा यह कहने पर कि देखो-देखो, राजा बिना खोपड़ी के ही लड़ रहा है, ऐसी बातें सुनते ही राजा ने अपने  सिर पर ज्यों ही हाथ रखा तो उसे खून से लथपथ पाया और वहीं एक शिला पर हाथ मारकर मूर्छित होकर शहीद हो गया। शत्रु सैनिक राजा की खोपड़ी के ऊपरी हिस्से को लेकर भाग खड़े हुए । मगढ़ैणों के कुआल़ से उतर कर चंबी खड्ड पार करके राजोल-डोला होते हुए गज्ज् दरिया पारकर घाटी नामक स्थान तक पहुंच गए। राजा राजसिंह की सेना ने भी नेरटी पहुंचने के बाद उनका पीछा किया और राजा की खोपड़ी के उस हिस्से को छुड़ा कर लाए थे। कहा जाता है कि इस युद्ध में नेरटी के लियोनिदास और राजा के दरबारी भट्ट सूहड़ी निवासी ने भी अपनी अदभुत वीरता एवं अदम्य साहस का परिचय दिया था।पहाड़ी दे पहले ग़ज़लकार, कताबा दा रेहया इंतज़ार : उड़दू च ‘नबेद-ए- सहर’ लिखणे आले सुदर्शन कौशल ‘नूरपुरी’ दा पहाड़ी च भी बड़ा योगदान

कहीं भूरी सिंह संग्रहालय की गैलरियों तक सिमट कर न रह जाए चंबा की पुरातन धातुकला, उनके पुरखों ने बनाईं धातु की कलाकृतियां बेशुमार  अब ‘सैंडकास्टिंग’ को सहेज रहे सिर्फ हैं दो परिवार

राजा राजसिंह का अन्तिम संस्कार रेहलू में खौहली खड्ड के किनारे किया गया था, जिसमें उनकी रानी और चार वादियां सती हुईं थीं।  राजा राजसिंह के खून से लथपथ पंजे का वह निशान आज भी उस शिला पर अंकित है और  वही शिला ‘स्मृति शिला’ एवं ‘राजे का देहरा’ के रूप में पूजनीय है। राजा के इस शहीदी स्थल का प्राचीन नाम ‘धरपल़ी’ बताया  जाता है।  इस युद्ध के बाद कहा जाता है कि राजा संसारचन्द को काफी  पछतावा भी हुआ, क्योंकि उसने तो केवल राजा को युद्धबन्दी बनाने के आदेश दिए थे। राजा राजसिंह की मृत्यु मात्र चालीस वर्ष की अवस्था में हो गई थी, फिर भी वह एक ऐतिहासिक वीर पुरुष सिद्ध होने के साथ-साथ एक कला-प्रेमी एवं  संरक्षक के रूप में भी जाने जाते रहे हैं। चंबा की लोक चित्रकला एवं  चंबा रुमाल आदि के संरक्षण एवं  विकास में  उनकी  महत्वपूर्ण भूमिका बताई जाती है।जयंती विशेष : ‘उसने कहा था’ के कथाकार का हिमाचल के गुलेर से है संबंध, प्रथम विश्वयुद्ध की त्रासदी के बीच प्रेम की अनुभूति को जीवंत करती कथाकार चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी पर साठ के दशक में फिल्मकार  विमल राय ने बनाई थी फिल्म

देहरा का नाम अब ‘राजमन्दिर’, हर साल ‘परम्परा-उत्सव’ का आयोजन
राजा राजसिंह के बेटे जीत सिंह ने 1794 से 1796 के मध्य अपने पिता की यादगार में एक शिव मंदिर का निर्माण करवाया और उसी वर्ष से एक मेले के आयोजन की परम्परा भी डाली। तभी से राजा राजसिंह के शहीदी दिवस आषाढ़ प्रविष्टे सात अर्थात 20 अथवा 21 जून को उनकी स्मृति में ‘देहरे दा मेला’ आयोजित होता है। यह मेला किसी समय देहरा (नेरटी) से लेकर कुठमां (घाटी) तक लगता था और कांगड़ा व चंबा के श्रद्धालु- भनाड़ू  देहरा आकर राजा के  देहरे व शिवजी के चरणों में शीश नवाते थे। चंबा के गद्दी लोग इस  देहरे को आज भी अपनी कुलज़ के  रूप में भी मानते व पूजते हैं। भले ही इस मेले का स्वरूप आज देहरा में सिकुड़ चुका है और कई वर्षों से यह देहरा से छिटक कर रैत कस्बे में मुख्य सड़क के किनारे पर केवल पठानकोट- गुरदासपुर के हलवाइयों एवं खरबूजों के व्यापार के कारण सड़क मार्ग पर जाकर पहुंच गया है, पर राजा की स्मृति शिला (देहरा) तथा शिव मंदिर की जलहरी व शिवलिंग के प्रति लोगों की आज भी अपार आस्था है।मोहक्का पत्थर: इस पत्थर पर नमक चढ़ाने से दूर हो जाते हैं शरीर के मस्से, ऐसे ही जानें कोहड़ी और पांडु पत्थर से जुड़े रोचक किस्से

इस मन्दिर का उत्तरदायित्व एवं पूजा-अर्चना का काम राज परिवार द्वारा ही देहरा में बसाए गए दीक्षित परिवार को सौंपा गया है। कांगड़ा  लोक साहित्य परिषद् और इसके संस्थापक निदेशक डॉ. गौतम शर्मा व्यथित के प्रयासों के चलते इस मन्दिर परिसर का विकास  केंद्रीय तथा प्रादेशिक सरकार के सहायता अनुदान से भी हुआ है, वहीं विगत 40-45 वर्षों से इस मेले को ‘परम्परा-उत्सव’ के रूप में मनाने का प्रयास किया जा रहा है। वर्तमान में डॉ. गौतम शर्मा व्यथित की सोच एवं प्रयास के कारण ही देहरा के इस स्थान को ‘राजमन्दिर’ के नाम से जाना जाता है। दूसरी ओर चंबा का नड्ड गांव भी काफी समय से राजनगर के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुका है और उसका रूप-स्वरूप भी शहर जैसा हो चुका है। समय-समय पर वर्तमान में राजमन्दिर नेरटी में  विभिन्न साहित्यिक गतिविधियां और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता रहता है। साथ ही एक पुस्तकालय एवं ग्रामीण निष्पादन कला विकास केंद्र के रूप में मंचीय आयोजन भी प्रदेश व राष्ट्रीय स्तर के आयोजित होते रहते हैं। यह स्थल आज भी रिसासतकालीन चंबा के इतिहास का आईना है। राजा राजसिंह की शहादत से जुड़े स्थल का सांस्कृतिक धरोहर के रूप में विकसित होना इतिहास को सहेजने की अनूठी पहल है।  द्वापर युग से जुड़ा है उदयपुर के मृकुला देवी मंदिर का इतिहास, प्राचीन काष्ठ कला का अद्भुत उदाहरण, यहां है महिषासुर के रक्त से भरा खप्पर, भूल से कोई देख ले तो हो जाएगा अंधा


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