ऐतिहासिक नगरी गुलेर के संरक्षण पर लेखक व सेवानिवृत्त अध्यापक नंद किशोर परिमल का लेख ; ‘हो न जाए बड़ी देर, कहीं मिट न जाए गुलेर’

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नंद किशोर परिमल लेखक सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य और गुलेर के रहने वाले हैं।

नगरी के पुराने राजभवन, किले, मंदिरों, कुओं, तालाबों और प्रवेशद्वारों के वर्चस्व को किसी न किसी तरह बचा लिया जाए, ताकि आने वाली पीढिय़ां अपने स्वर्णिम अतीत पर गौरवान्वित महसूस कर सकें। यदि ये धरोहरें अभी भी नहीं संभाली गईं तो सब कुछ अतीत के गर्भ में समा जाएगा और आने वाली औलादों को अपने अतीत की कोई जानकारी नहीं रहेगी।

—-नंद किशोर परिमल
लेखक सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य और गुलेर के रहने वाले हैं।

हरिपुर-गुलेर की धार्मिक, ऐतिहासिक, साहित्यिक एवं कला की दृष्टि से ‘छोटी काशी’ के नाम से जाने वाली यह प्रसिद्ध नगरी किसी पहचान की मोहताज नहीं है। राजा हरिश चंद्र द्वारा 1420ई में बसाई यह नगरी निरंतर विकास की ऊंचाइयों को छूती गई। राजाओं द्वारा नगर में अनेक मंदिर, तालाब, एवं प्रवेश द्वारों का निर्माण कराया गया जो स्वयं में अपने अतीत की गौरव गाथा बताने के लिए पर्याप्त हैं। खेद इस बात का है कि आजादी के बाद ये धरोहरें उपेक्षा का शिकार हो गईं। आज इनकी साज- संभाल की कोई व्यवस्था न होने के कारण ये सभी मिटने के कगार पर पहुंच गई हैं। नगरी के प्रमुख मंदिरों में कल्याण राय मंदिर, गोपाल राय, रामचंद्र मंदिर, गोवर्धनधारी मंदिर, गणेश मंदिर तथा दमनदोष माता का मंदिर प्रमुख हैं। अनेक कुएं व तालाब इस की शोभा को चार चांद लगाते थे। अनेक धर्मशालाएं पर्यटकों को लुभाती थीं। इनमें से कुछेक धरोहरें तो मिट चुकी हैं और शेष बची भी अपना अस्तित्व खोने की बाट जोह रही हैं।
यह नगरी ऐतिहासिक दृष्टि से कितना महत्व रखती थी। आप इसी बात से अंदाजा लगा सकते हैं कि प्रदेश के विभिन्न राजाओं को राजतिलक देने अधिकार मात्र गुलेर के राजाधिराज को ही होता था। यही नहीं, न्याय प्रणाली के क्षेत्र में यहां के राजा को प्रथम श्रेणी के न्यायाधीश की शक्तियां प्राप्त थीं और वो हरिपुर के ऐतिहासिक भवन में कचहरी सजा कर लोगों को न्याय प्रदान करते थे। यहां जन्म लेने वाले साहित्यकारों ने पूरे देश में अपना सिक्का मनवाया। महाकवि बृजराज और पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी आदि के नाम को कौन नहीं जानता। चित्रकला के क्षेत्र में यहां के चितेरों ने ‘गुलेर कलमÓ के नाम से देश में नाम दर्ज किया। आजादी के बाद राजाओं की अर्थव्यवस्था बिगड़ जाने के कारण ये कलाकृतियां भी बेचनी पड़ गईं। आज ये कलाकृतियां चंडीगढ़ के संग्रहालय में तत्कालीन राजा-महाराजाओं के शौक और महान कलाकारों की आत्मगाथा को बयान करती हैं। किला कभी रियासत की सुरक्षा करता था, आज अपनी सुरक्षा पर आंसू बहा रहा है। इस किले के अंदर पानी से लबालब भरा एक कुआं होता था जो भी उपेक्षा की भेंट चढ़ चुका है। किला निरंतर गिरता जा रहा है। इसका एक हिस्सा पिछले वर्षों गिरकर कॉलेज में पढऩे वाली छात्रा के प्राण ले चुका है। कह नहीं सकते कि कब यह पुन: कहर बरपा कर नीचे नगर में रहने वाले लोगों को अपना शिकार बना डाले। इस किले को देखकर राजस्थान के उन किलों का स्मरण हो आता है जहां आज भी ये धरोहरें सहेज संभाल कर रखी गई हैं।
आज यहां रहने वाले बुद्धिजीवियों को चिंता इस बात की है कि नगरी के पुराने राजभवन, किले, मंदिरों, कुओं, तालाबों और प्रवेशद्वारों के वर्चस्व को किसी न किसी तरह बचा लिया जाए, ताकि आने वाली पीढिय़ां अपने स्वर्णिम अतीत पर गौरवान्वित महसूस कर सकें। यदि ये धरोहरें अभी भी नहीं संभाली गईं तो सब कुछ अतीत के गर्भ में समा जाएगा और आने वाली औलादों को अपने अतीत की कोई जानकारी नहीं रहेगी। समय-समय पर प्रजातंत्र का चौथा पत्रकारिता का जागरूक स्तंभ भी सरकार का ध्यान इस ओर केंद्रित करता आया है, लेकिन ऊंट के मुंह में जीरा समान धन व्यवस्था के कारण इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता।
आवश्यकता इस बात की है इन सभी कुओं, मंदिरों, तालाबों, किले व राजभवन को सरकार द्वारा चिन्हित किया जाए और  उनके संरक्षण हेतु योजनाबद्ध ढ़ंग से कार्यक्रम बनाकर इन धरोहरों की रक्षा की जाए। ऐसा करने से जहां ये धरोहरें बचेंगी, वहीं पौंग बांध से घिरा यह हरिपुर गुलेर का क्षेत्र पर्यटन की दृष्टि से भी विकसित होकर उज्जवल भविष्य की ओर आगे बढ़ पाएगा। इस क्षेत्र के लोगों को सरकार से अपेक्षा है कि इस नगरी की उपेक्षित धरोहरों को बचाने के लिए संबंधित विभागों के माध्यम से कारगर पग उठाए जाएं।
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